आगे की सोच
कुछ सामाजिक कार्यकर्त्ता जिसे आज की भाषा में हम एनजीओ कहते है, एक बस्ती में गये जहाँ
बच्चें ज्यादा और आमदनी कम थी। वे सामाजिक कर्त्तव्य का निर्वहन करते हुए, बस्ती में जनसंख्या
वृध्दि को रोकने के उद्देश्य से समझाइश दे रहे थे। उन्होंने बहुत-सी कहानियाँ बताकर, कुछ उदाहरण तथा चित्रों के माध्यम से अंततोगत्वा यह समझाने की भरसक कोशिश की कि अधिक बच्चे होने से आने वाले समय में उन्हें मूलभूत आवश्यकताओं को पुरा करना मुश्किल हो जाएगा। बढ़ती जनसंख्या की पूर्ति के लिए संसाधनों की आवश्यकता बढ़ती जा रही है फलस्वरूप पेड़ और जंगल तो कट ही रहे है साथ ही उर्वरा भूमि का प्रतिशत भी घटता जा रहा है वगैरे -वगैरे। अंत में उसका सार यही था कि कम बच्चें होने से आप का और बच्चों का न केवल जीवन ही अच्छा रहेगा, अपितु देश तथा विश्व पर्यावरण की दृष्टि से भी यह एक उचित निर्णय होगा।
तभी बस्ती के श्यामभाई आये और एनजीओ टीम से कहने लगे, देखो हमारा बड़ा बेटा तो कमजोर और बीमार ही रहता है, दूसरा ठीक से पढ़ा -लिखा नहीं होने से कोई पक्का काम नहीं कर पाता, इसलिए काम करता तो करता वार्ना नहीं भी करता। तीसरा बेटा पढ़ा-लिखा हैं, कॉलेज तक पढ़ा है और एक बड़े सरकारी कारखाने में काम पर लग गया। लेकिन वो तो परिवार को देखता ही नहीं, पहचानता भी नहीं है। ये जो सबसे छोटा है, यही हट्टा-कट्टा और समझदार है। आज पूरे परिवार को साथ लेकर चल रहा है। ये न होता तो हमारा क्या होता? इसलिए मैं तो बस्तीवालों से यही कहता हूँ की एक या दो से तो हमारा कुछ नहीं होता अपने बुढ़ापे के लिए तो उससे आगे की सोचो।
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