Friday, October 1, 2021

 निर्माण और विनाश का साक्षी राजवाड़ा


     सन् 1802 में सिंधिया तथा होलकर की परंपरागत शत्रुता का शिकार हुआ यह राजवाड़ा।  इस वर्ष सिंधिया के सेनापति सरजेराव घाड़गे ने इंदौर पर आक्रमण कर इसे लूटा।  राजवाड़ा के दक्षिणी दिशा में  महानुभाव पंथ का मंदिर स्थित था।  इस कारण उसने दक्षिण भाग को छोड़कर राजवाड़ा को जलाकर नष्ट कर दिया।  तत्कालीन शासक यशवंतराव की 1811 में मृत्यु हो गई और राजवाड़ा का निर्माण पुनः अधूरा रह गया।

     मंदसौर की संधि के पश्चात 1818 में होलकरों ने इंदौर को राजधानी बनाया।  यशवंतराव की विधवा तुलसाबाई अपने अल्प वयस्क पुत्र मल्हारराव होलकर (द्वितीय) की संरक्षिका की हैसियत से शासन करने लगी।  सन् 1818 से 1833 के मध्य राज्य के प्रधानमंत्री तात्या जोग ने राजवाड़े का पुनः निर्माण आरंभ करवाया, जो हरीराव होलकर के शासन में पूर्ण हुआ।  सन 1834 में इसका निर्माण लगभग पूरा हुआ और इसी वर्ष यह पुनः एक बार अग्निकांड का शिकार हो गया तथा इसकी लकड़ी से निर्मित एक पूरी मंजिल जलकर राख हो गई।  खांडेराव की मृत्यु (1844) के बाद तुकोजीराव द्वितीय को गोद लिया गया, तब होलकर राजवंश का पहला राजतिलक इस राजवाड़े में हुआ।  इस प्रकार अपने निर्माण के लगभग सौ वर्षों बाद राजवाड़े ने पहले शासक का राजतिलक देखा।

     उस समय की परम्परानुसार इसके निर्माण में लकड़ी का बहुतायत में प्रयोग किए जाने की वजह से यह राजवाड़ा एक नहीं बल्कि तीन-तीन बार अग्निकांड का शिकार हुआ।  पहली दो घटनाओं का जिक्र तो ऊपर किया ही जा चुका है और तीसरी बार यह सन 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के पश्चात हुए देशव्यापी उपद्रव के दौरान अग्नि की भेंट चढ़ा दिया गया।

     परिणाम स्वरूप इसका मुख्य प्रवेश द्वार व गणेश हॉल ही बचा रहा बाकी सब कुछ जलकर राख हो गया।  स्थापत्य की मराठा और राजपूतानी शैली के प्रभाव वाले इस भव्य राजप्रासाद में प्रवेश द्वार के हिस्से में सात मंज़िलें हैं।  इसमें राजपूत शैली के झरोखे बने हुए हैं।  इसकी प्रथम तीन मंज़िलें राजपूत शैली तथा काष्ठ में निर्मित है और बाकी चार मंज़िलें मराठा शैली की प्रतीक हैं।  इसकी निर्माण शैली में पुणे के पेशवा के महल, शनिवार वाड़ा की छाप स्पष्ट दिखाई देती है।  भवन का निर्माण कुल 6175 वर्ग मीटर में हुआ है।  इसका प्रवेश द्वार आकर्षक है।

     भवन में पूर्वी भाग को छोड़कर शेष तीन मंज़िलें थी, जिनमें लंबे बरामदे युक्त आवासीय कक्ष, रेकॉर्ड रूम, कांच महल, हुजूर खजाना, गोल्ड स्मिथ कक्ष, कचहरी, नंदा दीप कक्ष, रानी निवास आदि प्रमुख थे, जो अब नष्ट हो चुके हैं।

     वर्तमान में शेष गणेश हॉल, दरबार हॉल था।  इसके निर्माण में भूरे-पीले पत्थर का उपयोग किया गया है।  इसमें प्रस्तर से बनी मेहराबें, स्तम्भ एवं उन पर की गई विशिष्ट जैन राजपूताना शैली की नक्काशी बड़ी कलात्मक व आकर्षक है।

     संपूर्ण राजवाड़ा में भित्ति चित्रों का संयोजन इसकी प्रमुख विशेषता थी।  टेंपोरा तकनीक में निर्मित इन चित्रों में दक्षिणी कलम, नाथद्वारा, कोटा, बूंदी तथा मालवा शैली का संयोजन था।  इनकी विषय वस्तु रामायण, महाभारत, भागवत पुराण व लोक कथानकों पर आधारित थी।  एक प्रकोष्ठ ऐसा भी था जहां संपूर्ण कक्ष में हाथी दांत की फ्रेम्स में कांच चित्रों को मढ़ा गया था।  राजवाड़े के कुछ चित्रों में ब्रिटिश प्रभाव भी दिखाई देता था।  चित्रों में चटख़ रंगों का इस्तेमाल किया गया था।  पर अब यह सब अतीत की बात बन कर रह गई है।

     सन 1976 में मध्यप्रदेश शासन ने होलकर वंशियों से इस इमारत को अपने संरक्षण में ले लिया और इसे निजी व्यापारी के हाथों बिकने से रोक दिया गया।  पर इस राजवाड़े के भाग्य में उतार-चढ़ाव ऐसे बंधे हैं कि 1984 में इसका अधिकांश भाग नष्ट हो गया।  राजवाड़े के अतिरिक्त होलकर शासकों ने दो अन्य आवासीय महलों का निर्माण करवाया था, किंतु आज भी जो गरिमा व महत्व इस पुराने राजवाड़े को प्राप्त है, वह लालबाग या माणिकबाग को नहीं।  वह क्षेत्र भी राजवाड़े के समान उतना विकसित नहीं हो सका जितना राजवाड़ा तथा उसके आसपास का क्षेत्र आज पूरा तरह विकसित दिखाई देता है।  आज भी इंदौर शहर की पहचान का प्रतीक है शहर के मध्य में स्थित यह राजवाड़ा।  

     इसी राजवाड़े के नाम से आसपास के रहवासी क्षेत्र तथा बाजारों को जाना जाता है।  इसी राजवाड़े के केंद्र से शहर का विस्तार होता रहा, इस कारण आज यह क्षेत्र शहर की ह्रदयस्थली कहलाता है।  खंडहर बन चुके धड़ के बाद भी इस का शीष यथावत है और अपने बार-बार उजड़ने-बसने की दास्तां को अपने अंदर ही समेटे यह इमारत होलकर इतिहास के विकास और प्रचार-प्रसार की गाथा सुनाती है।

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