Friday, March 27, 2020

Shiksha Dushit ya Pradushit

शिक्षा दुषित या प्रदूषित 

आज इस बात पर चर्चा आम हो गई है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली दूषित है।  इस संदर्भ में समाचार पत्रों में तो आये दिन विचार अभिव्यक्त होते ही रहते हैं, जैसे - 'शिक्षा के क्षेत्र में आई कमियों के सुधार हेतु शासन ने अभिनव योजनाएं लागू की हैं',  'शिक्षा परिसरों के माहौल में सुधार के लिए कदम उठाए जा रहे हैं, ऐसे ही कई अन्य वक्तव्य एवं विचार पढ़ने को मिल जाएंगे। ऐसा नहीं है कि इस संदर्भ में कुछ प्रयास नहीं किए गए।  कई आयोग बिठाए गए, साथी ही कई समितियों का भी गठन अब तक किया जा चुका हैं।  लेकिन परिणाम क्या रहें ? वही ढाक के तीन पात, क्योंकि जब समितियों के सुझावों को ही अनसुना कर दिया जाता है तो लागू करने की सक्रियता के बारे में तो सोचा भी नहीं जा सकता। इस बात पर तो सभी सहमत होंगे कि बच्चा माँ के पेट से कुछ भी सीख कर नहीं आता है। नित्य कर्म से लेकर राष्ट्र की बागडोर संभालने तक की सारी शिक्षा बालक को उसके माता-पिता तथा गुरु के साथ चारों तरफ व्याप्त वातावरण से ही प्राप्त होती है। 

बालक जीवन का प्रथम पाठ परिवार में रहकर ही सीखता है। इसके पश्चात आता है विद्यालय, जहां बालक को शिक्षा के साथ-साथ संस्कार तथा व्यावहारिकता का मार्गदर्शन प्रदान किया जाता है।  यह सब शिक्षा प्रदान करने वाले शिक्षक तथा शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थी दोनों ही के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है।  इस बात की पुष्टि के लिए रामायण तथा महाभारतकालीन गुरु-शिष्य परंपरा का उल्लेख करना यहाँ प्रासंगिक होगा। 

हमारे यहाँ पर जहां गुरु वशिष्ठ जैसे शांतिप्रिय, त्यागी और ज्ञानी महर्षि थे तो गुरु विश्वामित्र के समान अन्याय के विरुद्ध संघर्ष के लिए संस्कारित करने वाले विद्वत्त भी थे।  इन दोनों के सान्निध्य में रहने से राम के रूप में भारतीय जनमानस में एक ऐसे देवता का जन्म हुआ जो मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाये, जिन्होंने राजपाट को ठुकराकर वनवासी जीवन को स्वीकारा तथा असुरी शक्तियों के विनाश में अपना जीवन समर्पित कर दिया। 

दूसरी तरफ द्रोणाचार्य जैसे शिक्षक (गुरु) थे, जिन्होंने अपने शिष्य अर्जुन को अपराजेय  धनुर्धर बनाने के लिए एकलव्य जैसे निष्ठावान शिष्य का अंगूठा कटवा दिया।  इस निष्ठाहनन का प्रभाव निश्चित रूप से द्रोणाचार्य के अन्य शिष्यों पर भी पड़ा, जिसका परिणाम यह रहा कि वह एक दूसरे का सिर काटने के लिए उद्धत हो गये।  पितामह भीष्म को भी बाणों से भेद दिया गया।  स्वयं द्रोणाचार्य का भी सिर काट दिया गया था। 

इसी प्रकार सिकंदर में असीम साहस और दृढ़ इच्छाशक्ति के संस्कार उनके गुरु सुकरात और अरस्तु द्वारा प्रदान किए गए थे, तो वीर शिवाजी में साहस के संस्कार उनके गुरु रामदास ने प्रवाहित किए थे।  आधुनिक संदर्भ में गांधीजी के गुरु गोखले थे तो नेहरूजी अपना गुरु गांधीजी को मानते थे।  इनके जीवन का मूल्यांकन करें तो हमें गुरुओं की विद्वत्ता में शिष्यों की सफलता दिखाई देती है। 

ऐसे में वर्तमान समय की अगर बात की जाये तो गुरुओं की वह श्रेष्ठता तथा चरित्रगत दृढ़ता कम ही परिलक्षित हो रही है।  आज उद्देश्यों में भटकाव स्पष्ट दिखाई दे रहा है। वर्तमान समय में उद्देश्यों की प्रेरणा नहीं अपितु कर्ज की अदायगी महत्वपूर्ण हो गई है। छात्रों में प्रेरक मार्गदर्शन का अभाव होता जा रहा है।  फलस्वरूप, आदर्श व्यक्तियों के प्रेरक प्रसंग, सुंदर और प्रेरणाप्रद काव्य छात्रों की सोच में परिवर्तन लाने या कहें दिशा देने में असफल हो रहे हैं। यही वज़ह है शायद की आज छात्र महापुरुषों की जयंती पर काव्यपाठ, महत्वपूर्ण विषयों पर भाषण प्रतियोगिता अथवा समसामयिक मुद्दों पर आयोजित होने वाली वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में दिलचस्पी नहीं लेते हैं। उन्हें पसंद आते हैं फिल्मी गानों पर आधारित अंताक्षरी कार्यक्रम, फैशन शो या फिर एक मिनट में जैसे सतही कार्यक्रम।  छात्रों की इस रुची में परिवर्तन लाना आवश्यक है।  इसके लिए प्रयास भी शिक्षक को ही करने होंगे। 

ऐसा नहीं है कि आज का शिक्षक समुदाय नाकारा है या कर्तव्यनिष्ठ नहीं है।  आज भी आदर्श शिक्षक मौजूद है, जो छात्रों की योग्यता को तराशने में गर्व का अनुभव करते हैं, गुरु-शिष्य की गौरवशाली परंपरा का निर्वाह कर रहे हैं और निस्वार्थ शिक्षा प्रदान करने में भी हमेशा तत्पर रहते हैं। किंतु प्रश्न यह उठता है की कितने हैं ऐसे। 

अब इस उपयुक्त विस्तृत विवेचन के पश्चात निष्कर्षतः इस बात पर विचार किया जा सकता है कि शिक्षा की बिगड़ी व्यवस्था के लिए आमूल परिवर्तन क्या हो सकते हैं, इसे कैसे प्रदूषण मुक्त किया जा सकता है।  उसके लिए अध्यापक के चयन से लेकर विषय निर्धारण तक का सारा कार्य योग्यता, चरित्र और मूल्यों की कसौटी पर कसा जाना चाहिए।  राजनीतिक हस्तक्षेप समाप्त करके, विद्यालय प्रांगण को सिर्फ प्रमाण पत्र और उपाधी बांटने की संस्था की बजाए चरित्र, नैतिकता और योग्यता से संपन्न, सुयोग्य नागरिक तैयार करने का गौरवशाली केंद्र बनाया जाना चाहिए। 

स्वाभाविक रूप से यह आज की नितांत आवश्यकता है, जिस पर अमल कर हम भविष्य के लिए गाँधी, विवेकानंद, बोस जैसे राष्ट्रनायक तैयार कर सकेंगे।  वरना तो हमारे सामने भूत और भविष्य के वास्तविक और काल्पनिक स्वप्न के बीच जो चित्र उपस्थित हो रहा है, वह कोई बहुत अच्छी तस्वीर प्रस्तुत नहीं कर रहा है। क्योंकि आज जो शिष्य नागरिक बनने की ओर अग्रसर है, वह संवेदनाओं से रहित, नैतिकता से दूर और व्यावहारिकता से अनभिज्ञ एक ऐसा वर्ग तैयार हो रहा है जिसे येन-केन प्रकरेण धन अर्जित कर सम्पन्न बनना है।  इसे रोकना होगा। 

सही मार्गदर्शन आज की युवा पीढ़ी को शिक्षा के माध्यम से ही देना होगा, जिससे उनकी सोच में परिवर्तन लाया जा सके, वरना तो दूषित सोच और प्रदूषित वातावरण के चलते हमारे गौरवशाली अतीत को मिटते देर नहीं लगेगी।

डॉ.मोहिनी नेवासकर 
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Tuesday, March 24, 2020

Ziddi

ज़िद्दी

सामने वाले चावला जी भरी दोपहरी में चाचा जी को लेकर घर पहुंचे। दोपहर के करीब 2:00 बज रहे थे, हाथ में पट्टी बंधी हुई थी और चेहरे पर तपती दोपहरी में पसीने की बूंदों की जगह क्रोध की अग्नि दीप्त थी। वज़ह कोई नयी नहीं थी, किंतु पुरानी होते हुए भी उसका कोई समाधान नहीं हो पा रहा था। 

दरअसल बात यह थी कि चाचा जी के दोनों बेटे विदेश में सेटल हो गए थे। जब तक चाची जी थी, तब तक दोनों मियां-बिबी मज़े से अपने आलीशान बंगले में रहते थे। उनके ठीक सामने हमारा भी मकान था। चाची जी के जाने के बाद परिस्थितिवश चाचा जी को अपना घर द्वार बेचकर बच्चों के पास विदेश जाना पड़ा। अब नई जगह, नया परिवेश, नए-नए लोग, उन्हें कुछ भी रास नहीं आ रहा था।

इसलिए थोड़े दिन गुजरे नहीं की चाचा जी वापस अपने देश जाने की ज़िद करते। अब बच्चों का बार-बार उनको भारत लेकर आना बड़ा मुश्किल काम था और उनके साथ रुकना तो लगभग असंभव सा था। अंततः इसका हल यह निकाला गया की कुछ करीबी रिश्तेदारों से बात कर थोड़े दिनों के मन बहलाव के लिए उन्हें भारत भेज दिया जाता।  किंतु चाचा जी को तो यहां आते ही जैसे पंख लग जाते। इधर-उधर अकेले ही घूमने चले जाते तथा अपनी आधी से अधिक उम्र उन्होंने जिस घर में गुजारी थी, जो अब बेच दिया गया था, वहां तो वह लगभग रोज ही जाते और पूरे अधिकार पूर्वक जाते थे। कई बार तो उस घर से बाहर आने को भी तैयार नहीं होते थे। कभी घर के ही बाहर घंटों बैठे रहते तो कभी जबरदस्ती बाहर निकालने पर दहाड़े मार मार कर रोने लगते थे। उनकी इन हरकतों से हमें तो शर्मिंदगी होती ही थी सामनेवाले को भी परेशानी होती थी। जब इस तरह की हरकतें ज्यादा बढ़ जाती तो मजबूरन उन्हें वापस बच्चों के पास विदेश भेजने का बंदोबस्त करना पड़ता। अपनी गलतियों पर शर्मिंदा हो, थोड़े दिन तो वहां पर ठीक-ठाक रहते, मगर कुछ दिनों बाद फिर वही इंडिया जाने की ज़िद, गलतियां न करने कि कसमें और न जाने क्या-क्या। ढाक के तीन पात, वापसी के बाद फ़िर वही हरकतें। इस बार तो पूरे 2 साल बाद आए थे, सोचा था सुधर गए होंगे लेकिन नहीं। इस  बार उन्होंने खिड़की के ऊपर जोर-जोर से हाथ मारकर कांच तो तोड़ा ही अपना हाथ भी जख्मी कर बैठे थे। अब क्या हो इस समस्या का समाधान, किसी की कुछ समझ में नहीं आ रहा था।


- डॉ. मोहिनी नेवासकर

Sunday, March 22, 2020

Kanya

कन्या 
एक दंपत्ती डॉक्टरों से जिरह कर रहे थे। वह गर्भ में पल रही बालिका को इस संसार में लाना नहीं चाहते थे। वह इसके पक्ष में तर्क देते हुए कह रहे थे, कि यह देश लड़कियों के लिए सुरक्षित नहीं है। आए दिन चारों ओर से लड़कियों पर अत्याचार, अनाचार और दुराचार की खबरें आती रहती है। अगर हम इस गर्भस्थ बालीका को इस संसार में लाते हैं तो इसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी कौन लेगा? डॉक्टर के पास उनकी इस आशंका का कोई माकूल जवाब नहीं था। और इस देश के कानून और व्यवस्था के बारे में कुछ ना कहना ही बेहतर था। 

तभी गर्भस्थ बालिका सोचने लगी कि यदि गर्भ में मेरी जगह किसी बालक का भ्रूण होता तो उस अवस्था में भी क्या यह ऐसा ही सोचते? या फिर उस वक्त यह पूरी तरह निश्चिंत होते कि आने वाला बालक इसी दुराचारी, भ्रष्टाचारी और व्यवस्था की पंगु होती स्थिति में अर्थात विपरीत, कुसंस्कारित वातावरण में सभ्य, शालीन और सुशील रहता। 

दूसरा पहलू यह भी है कि यदि मैं डॉक्टर की कृपा से और कानूनी सहायता से इस दुनिया में आ भी जाती हूं, तो यहां वह पहले वाली व्यवस्था नही होगी इसकी क्या ग्यारंटी। उसमें भी तो पालक पहले तो बहुतेरे उपायों द्वारा कन्या को मारने के उपाय करते, किंतु यदि भाग्य से वह बच भी जाती तब यही पालक कन्यादान का पुण्य कमाने की लालसा में तथा बालिका को न संभाल पाने की मजबूरी में बचपन में ही उसका विवाह कर देते। जिसे नाम भी बाल विवाह ही दीया जाता और यह मान लिया जाता कि अब इस छोटी सी बालिका के संरक्षण की जिम्मेदारी दो परिवार मिलकर उठाएंगे तो वह सुरक्षित रहेगी। किंतु इस बीच यदी बालिका की रक्षा का भार उठाने वाला, अग्नि को साक्षी मानकर उसके संरक्षण की शपथ लेने वाला ही इस दुनिया को अलविदा कर जाए तो उसे भी पति की मृत देह के साथ जीवित और स्वस्थ अवस्था में इस संसार को अलविदा करना पड़ता और तब हम उसे सती का नाम देते तथा पुण्यवान, महान आत्मा कहकर ससम्मान इस दुनिया से विदा होने के लिए मानसिक रूप से तैयार करते। उसकी चीखों और चिल्लाहटों को अनसुना करने के लिए ढोल, नगाड़े और बांस बजाते और बाद में उसका मंदिर बनाकर पूजा भी करते।

यदि यही पुरुष सामूहिक रूप से किसी कारणवश मौत के मुंह में जाते, अर्थात एक से अधिक की तादात में उस समय होनेवाले युद्धों में अपने प्राण गंवाते तो यकीन मानिए उन महिलाओं को संगठित होकर शक्ति ग्रहण कर अपनी रक्षा आप करने का मंत्र देने और जिंदगी जीने को कहने के स्थान पर उन्हें सामूहिक रूप से इस संसार को अलविदा करने को कहते जिसे जौहर का नाम दिया जाता तथा उन जगहों को बाद में पर्यटन की जगह के रूप में प्रचारित ही नहीं करते अपितु राष्ट्रीय धरोहर तथा मर्यादा की रक्षा के लिए किए गए बलिदान के रूप में महिमामंडित भी करते। 

अब आप इसे अशिक्षित, असभ्य और बर्बर समाज की वास्तविकता से निपटने की क्रूर व्यवस्था कह लो या फिर आधुनिक, शिक्षित, सभ्य और प्रगतिशील समाज की वास्तविकता से मुंह मोडने की लाचार अवस्था की गर्भ में ही लिंग का पता कर उसे बाहर आने से रोकना। मैं (कन्या भ्रूण) इतने सालों से व्यवस्था के बदलाव के प्रति आशान्वित हो बाहर आने की राह देख रही हूं। क्या मुझे वह राह मिल पाएगी, गर्भ में पल रही बालिका बोल पड़ी। क्या है जवाब इसका आपके पास?

- डॉ. मोहिनी नेवासकर

Friday, March 20, 2020

Indian education system pre British rule

अंग्रेजों के पहले की भारतीय शिक्षा व्यवस्था 

हिंदी नवजीवन में 07-10-26 को मोहनदास करमचंद गांधी द्वारा व्यक्त विचार - यूरोपीय सभ्यता बेशक यूरोप के निवासियों के लिए अनुकूल है, लेकिन यदि हमने उनकी नकल करने की कोशिश की तो भारत के लिए उसका अर्थ अपना नाश कर लेना होगा। आज तो यह निश्चित है कि हमारे लाखों करोड़ों लोगों के लिए सुख सुविधाओं वाला उच्च जीवन संभव नहीं है और हम मुट्ठी भर लोग, जो सामान्य जनता के लिए चिंतन करने का दावा करते हैं सुख सुविधाओं वाले उच्च जीवन की निरर्थक खोज में उच्च चिंतन को खोने की जोखिम उठा रहे हैं। उपरोक्त कथन से यह स्पष्ट है कि हमारा शक्तिशाली वर्ग भारतीय समाज को जो दिशा देना चाहता था या देने की बात कर रहा था, उसका तर्क और औचित्य वह एक विशिष्ट ऐतिहासिक व्याख्या में देखता था। जिसके अनुसार इधर शताब्दियों से हम अंधेरे और अज्ञान में गिरे थे, हमारा अपना राज्य नहीं था, परस्पर संबंध भी पर्याप्त नहीं थे। हमारी सामाजिक इकाइयां भी अपने में अलग-अलग कटी पड़ी रहती थी, विज्ञान और प्रौद्योगिकी में हम बहुत पीछे थे, शिक्षा मुट्ठी भर लोगों तक और विशिष्ट समूहों तक ही सीमित थी।  हम एक असंगठित, गतिहीन समाज थे।

इस्लाम की टकराहट से कुछ प्राण आते दिखे और उसमें मात्र भक्ति आंदोलन उभरा, विद्रोह हुआ। मुख्यधारा में बिखराव, असंगठन, परस्पर भेदभाव, शोषण और गतिहीनता ही रही। यूरोप की स्थिति इससे उल्टी थी। वहां गतिशीलता थी, अपेक्षाकृत क्षमता एवं समृद्धि थी, इसी से संगठन था और इसी से वे शायद जीत गए और हम हार गए। यह मान्यता बहुत गहराई तक प्रविष्ट हो चुकी थी या कहे कराई जा चुकी थी और ब्रिटिश राज में जो लोग शक्तिशाली थे उनमें ऐसा एक भी संगठित समूह नहीं दिखता, जो 16वी, 17वी अथवा 18वी शताब्दी के भारत को उस समय के यूरोप से अधिक अलोकतांत्रिक, विषमताग्रस्त, पिछड़ा, गतिहीन, मानवीय गुणों में कमतर और अज्ञानता से त्रस्त ना मानता हो। अगर कहें भारत की हीनता की बात गांधीवादियों में सर्वमान्य ही दिखती है तो अतिशयोक्ति नही होगी। परंतु हार के मूल में हमारी हीनता और विषमता ही कारण थी, इस पर नए प्रबुद्ध समूहों में लगभग सर्वानुमति है। लेकिन क्या वास्तव में स्थिति ऊपर उल्लेखित परिस्थिति अनुसार ही थी, इसे जानना आवश्यक है। आइए देखते हैं 18वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक भारतीय समाज में शिक्षा की स्थिति कैसी थी। 

*शिक्षा* - अंग्रेजों द्वारा भारतीय या कहे तत्कालीन स्वदेशी शिक्षा पद्धति का सर्वेक्षण करवाया था, जिससे उन्हें शिक्षा की नीति निर्धारित करने में सहायता मिल सके। भारत का एक विस्तृत क्षेत्र 12वीं सदी ईस्वी से लगातार इस्लाम अनुयायियों के आक्रमण से टकरा रहा था। युद्ध रत समाज की समाज व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था तथा अर्थव्यवस्था बहुत अस्त-व्यस्त होती, बिखरती और अस्वस्थ होती रहती है, यह सर्वविदित है। अतः 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध और उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में हुए सर्वेक्षण में उस समय के बिखर रही कमजोर दशा को ही बताती है। 

मद्रास प्रेसीडेंसी में स्वदेशी शिक्षा की स्थिति कैसी थी, इस संदर्भ में अंग्रेजों द्वारा किया गया सर्वेक्षण सन 1820 एवं 1830 के दशक में वहां की वास्तविक स्थिति का विवरण इस प्रकार है जो मुख्यतः 1820 से 1830 के दशक का है।  मुख्यतः 1822-25 में एक सर्वेक्षण हुआ था। तत्कालीन मद्रास प्रेसिडेंसी में पूरा तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, वर्तमान कर्नाटक प्रांत के ज़िले एवम् उड़ीसा का गंजाम जिला सम्मिलित था। 

इसके पहले सन 1790 ईसवी की बंगाल के नवद्वीप विश्वविद्यालय की एक रिपोर्ट है, जिसके अनुसार वहां 1100 विद्यार्थी और 150 अध्यापक उन दिनों थे। सन 1830 से 1840 ईसवी के मध्यबंगाल की शिक्षा की स्थिति के बारे में विलियम एडम की पहली रिपोर्ट 1835 इसवी में आई और दूसरी एवं तीसरी 1838 इसवी में। 

एडम का यह सर्वेक्षण इस अनुमान को मानकर चला कि बंगाल और बिहार की उन दिनों कुल जनसंख्या लगभग चार करोड़ थी और विद्यमान स्कूलों की संख्या 100000 थी, अर्थात हर 400 व्यक्तियों पर एक स्कूल। इस पर अनुमान लगाते हुए एडम ने लिखा कि औसतन हर 63 लड़कों के लिए एक स्कूल वहां उपलब्ध था। उनका कहना था कि इन दोनों प्रांतों में सरकारी आंकड़ों के अनुसार 150784 गांव थे। इनमें से अधिकांश गांव में एक स्कूल तो था ही। एडम ने लिखा है कि गरीब से गरीब परिवारों के बच्चे भी स्कूल जाते थे। एडम आगे लिखते हैं - कि यह स्कूल देसी लोगों की जीवन शैली और सामाजिकता से जुड़ी हुई थी।  यह सामान्यता गांव के प्रतिष्ठित व्यक्ति के घर में या उसके पास में अथवा किसी गुरु के ही घर में होती थी। 11 वर्ष तक प्राथमिक शिक्षा पूर्ण होती थी। 

एडम ने इस शिक्षा पद्धति का विवरण भी दिया था, कि पहले 8 से 10 दिन स्लेट पर या भूमि पर अंगुलियों से स्वर व्यंजन लिखना सिखाया जाता था। सफेद खड़िया, गेरू या कोयला अथवा लाल रंग के पत्थर आदि से, फिर ताड़पत्र पर भरूई की लेखनी से। उन्होंने स्याही बनाने की देशी विधि भी लिखी। व्यंजनों को जोड़ना, शब्द बनाना, वर्णोच्चार सीखना, गिनती सीखना एवं माप की गिनती सीखना, विशिष्ट व्यक्तियों, वस्तुओं एवं स्थलों के नाम लिखना आदी साल भर में सिखाया जाता था। आगे अंकगणित, खेत की नाप-जोख़, खेती एवं वाणिज्य संबंधी लेखा व कस्बों-शहरों में व्यापार वाणिज्य तथा आख्यान लेख अधिक सिखाया जाता था। फिर कुछ कविताएं तथा आख्यान लिखना और याद रखना। एडम को इस बात की चिंता थी कि वैसी कोई स्पष्ट नैतिक शिक्षा यानी 'रिलिजियस' शिक्षा यहां इन स्कूलों में नहीं दी जाती थी, जैसी इंग्लैंड में उन दिनों दी जा रही थी। इससे उनका अभिप्राय ईसाई मान्यताओं के प्रचार के अभाव से था और वह अभाव एडम को खटक रहा था।

विलियम एडम से वर्षों पहले मद्रास के गवर्नर सर थॉमस मुनरो ने मद्रास प्रेसीडेंसी के बारे में यही कहा कि ऐसा लगता है कि वहां हर गांव में एक स्कूल है। सन 1820 ईस्वी के आसपास मुंबई प्रेसिडेंसी के बारे में वहां के एक वरिष्ठ अफसर जी.एल.प्रेंडरगास्ट ने कहा कि हमारे क्षेत्र में शायद ही कोई छोटा सा गांव ऐसा हो जहां एक स्कूल नहीं है। 1882 ईस्वी में डॉक्टर ने पंजाब की 1850 की स्थिति के बारे में लिखा कि अंग्रेजी आधिपत्त्य में आने से पहले पंजाब में भी लगभग हर गांव में एक स्कूल था।

मद्रास प्रेसिडेंसी में शिक्षा की स्थिति के बारे में जानकारी एकत्र करने हेतु गवर्नर थॉमस मुनरो ने एक निर्देश राजस्व कलेक्टरों को सन 1828 में प्रसारित किया, उसके आधार पर राज्य-मुख्य सचिव डी.हील ने बोर्ड ऑफ रेवेन्यू के अध्यक्ष व सदस्यों को एक पत्र लिखा।  उस पर से कलेक्टरों की रिपोर्टें आई।  उनमें विद्यालयों की संख्या, उनकी सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति एवं व्यवस्था की रूपरेखा, शिक्षकों एवं विद्यार्थियों की संख्या, उनकी सामाजिक स्थिति, जाति आदि तथा पढ़ाए जाने वाले विषय, पुस्तकें व अध्यापन विधि और छात्रों-अध्यापकों का योग्यता-स्तर आदि विवरण थे। गंजाम और विशाखापट्टनम के कलेक्टरों ने लिखा कि जो तथ्य वह भेज रहे हैं, वह भी अभी पूरे नही है, अधूरे ही हैं और तथ्य अभी एकत्र होने हैं। दो कलेक्टरों ने घर पर पढ़ रहे बच्चों को भी जानकारी दी।  मलाबार के कलेक्टर ने वहां के 1594 विद्वानों की विस्तृत सूची भेजी जो धर्मशास्त्र, विधि गणित, ज्योतिष, तत्वज्ञान, नीतिशास्त्र एवं आयुर्वेद में अपने गुरुओं के घरों में (स्कूलों व कॉलेजों में नहीं) निजी तौर पर अध्ययनरत थे।  फरवरी 1826 में मद्रास के कलेक्टर ने रिपोर्ट भेजी कि उसके क्षेत्र में 26963 विद्यार्थी अपने घरों में पढ़ रहे हैं। मद्रास के कलेक्टर की पहली रिपोर्ट में पढ़ रहे बच्चों की संख्या 5699 दी गई है। 

कलेक्टरों की रिपोर्ट मिलने पर मद्रास प्रेसीडेंसी की सरकार ने 10 मार्च 1826 को उनकी समीक्षा की और गवर्नर सर थॉमस मुनरो ने निष्कर्ष टिप्पणी की कि 5 से 10 वर्ष आयु समूह के प्रेसिडेंसी के कुल लड़कों का लगभग एक चौथाई हिस्सा स्कूलों में शिक्षा पा रहा है।  घर पर पढ़ रहे बच्चे इसके अतिरिक्त है।  घर पर पढ़ रहे बच्चों की संख्या मिलाने पर कुल लगभग एक तिहाई के करीब छात्र पढ़ रहे हैं, ऐसा निष्कर्ष निकलता है। लड़कियों की स्कूली शिक्षा की कमी के बारे में थॉमस मुनरो ने यह स्पष्टीकरण दिया कि उनकी पढ़ाई मुख्यतः घरों में होती है। पढ़ाए जाने वाले विषयों का जो विवरण उन्होंने दिया, उसमें गणित, व्याकरण, ज्योतिष, तर्क आयुर्वेद, विधि, दर्शन और संस्कृत साहित्य के प्रायः वे ही ग्रंथ है, जो मद्रास या बंगाल में। क्षेत्रीय साहित्य की पुस्तकें, कथा-कहानी, नाटक, नीतिकथा आदि  प्रत्येक क्षेत्र में प्रायः स्थानीय होती थी। इस प्रकार शिक्षा का अखिल भारतीय और स्वाभाविक क्षेत्रीय रूप साथ-साथ दिखता था।

यह विवरण स्पष्ट करते हैं कि भारत उन दिनों शिक्षा की दृष्टि से हीन नहीं था और महात्मा गांधी का सन 1931 में लंदन की एक सभा में कहा गया यह कथन पूर्णतः प्रामाणिक था कि अंग्रेजी राज्य में भारत में शिक्षितों की संख्या घटी है क्योंकि अंग्रेजों ने स्वदेशी विद्या के सुंदर वृक्ष की जड़ों को खोद कर देखा और फिर वह खुदी हुई जड़ें खुली ही रहने दी।

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