अंग्रेजों के पहले की भारतीय शिक्षा व्यवस्था
हिंदी नवजीवन में 07-10-26 को मोहनदास करमचंद गांधी द्वारा व्यक्त विचार - यूरोपीय सभ्यता बेशक यूरोप के निवासियों के लिए अनुकूल है, लेकिन यदि हमने उनकी नकल करने की कोशिश की तो भारत के लिए उसका अर्थ अपना नाश कर लेना होगा। आज तो यह निश्चित है कि हमारे लाखों करोड़ों लोगों के लिए सुख सुविधाओं वाला उच्च जीवन संभव नहीं है और हम मुट्ठी भर लोग, जो सामान्य जनता के लिए चिंतन करने का दावा करते हैं सुख सुविधाओं वाले उच्च जीवन की निरर्थक खोज में उच्च चिंतन को खोने की जोखिम उठा रहे हैं। उपरोक्त कथन से यह स्पष्ट है कि हमारा शक्तिशाली वर्ग भारतीय समाज को जो दिशा देना चाहता था या देने की बात कर रहा था, उसका तर्क और औचित्य वह एक विशिष्ट ऐतिहासिक व्याख्या में देखता था। जिसके अनुसार इधर शताब्दियों से हम अंधेरे और अज्ञान में गिरे थे, हमारा अपना राज्य नहीं था, परस्पर संबंध भी पर्याप्त नहीं थे। हमारी सामाजिक इकाइयां भी अपने में अलग-अलग कटी पड़ी रहती थी, विज्ञान और प्रौद्योगिकी में हम बहुत पीछे थे, शिक्षा मुट्ठी भर लोगों तक और विशिष्ट समूहों तक ही सीमित थी। हम एक असंगठित, गतिहीन समाज थे।
इस्लाम की टकराहट से कुछ प्राण आते दिखे और उसमें मात्र भक्ति आंदोलन उभरा, विद्रोह हुआ। मुख्यधारा में बिखराव, असंगठन, परस्पर भेदभाव, शोषण और गतिहीनता ही रही। यूरोप की स्थिति इससे उल्टी थी। वहां गतिशीलता थी, अपेक्षाकृत क्षमता एवं समृद्धि थी, इसी से संगठन था और इसी से वे शायद जीत गए और हम हार गए। यह मान्यता बहुत गहराई तक प्रविष्ट हो चुकी थी या कहे कराई जा चुकी थी और ब्रिटिश राज में जो लोग शक्तिशाली थे उनमें ऐसा एक भी संगठित समूह नहीं दिखता, जो 16वी, 17वी अथवा 18वी शताब्दी के भारत को उस समय के यूरोप से अधिक अलोकतांत्रिक, विषमताग्रस्त, पिछड़ा, गतिहीन, मानवीय गुणों में कमतर और अज्ञानता से त्रस्त ना मानता हो। अगर कहें भारत की हीनता की बात गांधीवादियों में सर्वमान्य ही दिखती है तो अतिशयोक्ति नही होगी। परंतु हार के मूल में हमारी हीनता और विषमता ही कारण थी, इस पर नए प्रबुद्ध समूहों में लगभग सर्वानुमति है। लेकिन क्या वास्तव में स्थिति ऊपर उल्लेखित परिस्थिति अनुसार ही थी, इसे जानना आवश्यक है। आइए देखते हैं 18वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक भारतीय समाज में शिक्षा की स्थिति कैसी थी।
*शिक्षा* - अंग्रेजों द्वारा भारतीय या कहे तत्कालीन स्वदेशी शिक्षा पद्धति का सर्वेक्षण करवाया था, जिससे उन्हें शिक्षा की नीति निर्धारित करने में सहायता मिल सके। भारत का एक विस्तृत क्षेत्र 12वीं सदी ईस्वी से लगातार इस्लाम अनुयायियों के आक्रमण से टकरा रहा था। युद्ध रत समाज की समाज व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था तथा अर्थव्यवस्था बहुत अस्त-व्यस्त होती, बिखरती और अस्वस्थ होती रहती है, यह सर्वविदित है। अतः 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध और उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में हुए सर्वेक्षण में उस समय के बिखर रही कमजोर दशा को ही बताती है।
मद्रास प्रेसीडेंसी में स्वदेशी शिक्षा की स्थिति कैसी थी, इस संदर्भ में अंग्रेजों द्वारा किया गया सर्वेक्षण सन 1820 एवं 1830 के दशक में वहां की वास्तविक स्थिति का विवरण इस प्रकार है जो मुख्यतः 1820 से 1830 के दशक का है। मुख्यतः 1822-25 में एक सर्वेक्षण हुआ था। तत्कालीन मद्रास प्रेसिडेंसी में पूरा तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, वर्तमान कर्नाटक प्रांत के ज़िले एवम् उड़ीसा का गंजाम जिला सम्मिलित था।
इसके पहले सन 1790 ईसवी की बंगाल के नवद्वीप विश्वविद्यालय की एक रिपोर्ट है, जिसके अनुसार वहां 1100 विद्यार्थी और 150 अध्यापक उन दिनों थे। सन 1830 से 1840 ईसवी के मध्यबंगाल की शिक्षा की स्थिति के बारे में विलियम एडम की पहली रिपोर्ट 1835 इसवी में आई और दूसरी एवं तीसरी 1838 इसवी में।
एडम का यह सर्वेक्षण इस अनुमान को मानकर चला कि बंगाल और बिहार की उन दिनों कुल जनसंख्या लगभग चार करोड़ थी और विद्यमान स्कूलों की संख्या 100000 थी, अर्थात हर 400 व्यक्तियों पर एक स्कूल। इस पर अनुमान लगाते हुए एडम ने लिखा कि औसतन हर 63 लड़कों के लिए एक स्कूल वहां उपलब्ध था। उनका कहना था कि इन दोनों प्रांतों में सरकारी आंकड़ों के अनुसार 150784 गांव थे। इनमें से अधिकांश गांव में एक स्कूल तो था ही। एडम ने लिखा है कि गरीब से गरीब परिवारों के बच्चे भी स्कूल जाते थे। एडम आगे लिखते हैं - कि यह स्कूल देसी लोगों की जीवन शैली और सामाजिकता से जुड़ी हुई थी। यह सामान्यता गांव के प्रतिष्ठित व्यक्ति के घर में या उसके पास में अथवा किसी गुरु के ही घर में होती थी। 11 वर्ष तक प्राथमिक शिक्षा पूर्ण होती थी।
एडम ने इस शिक्षा पद्धति का विवरण भी दिया था, कि पहले 8 से 10 दिन स्लेट पर या भूमि पर अंगुलियों से स्वर व्यंजन लिखना सिखाया जाता था। सफेद खड़िया, गेरू या कोयला अथवा लाल रंग के पत्थर आदि से, फिर ताड़पत्र पर भरूई की लेखनी से। उन्होंने स्याही बनाने की देशी विधि भी लिखी। व्यंजनों को जोड़ना, शब्द बनाना, वर्णोच्चार सीखना, गिनती सीखना एवं माप की गिनती सीखना, विशिष्ट व्यक्तियों, वस्तुओं एवं स्थलों के नाम लिखना आदी साल भर में सिखाया जाता था। आगे अंकगणित, खेत की नाप-जोख़, खेती एवं वाणिज्य संबंधी लेखा व कस्बों-शहरों में व्यापार वाणिज्य तथा आख्यान लेख अधिक सिखाया जाता था। फिर कुछ कविताएं तथा आख्यान लिखना और याद रखना। एडम को इस बात की चिंता थी कि वैसी कोई स्पष्ट नैतिक शिक्षा यानी 'रिलिजियस' शिक्षा यहां इन स्कूलों में नहीं दी जाती थी, जैसी इंग्लैंड में उन दिनों दी जा रही थी। इससे उनका अभिप्राय ईसाई मान्यताओं के प्रचार के अभाव से था और वह अभाव एडम को खटक रहा था।
विलियम एडम से वर्षों पहले मद्रास के गवर्नर सर थॉमस मुनरो ने मद्रास प्रेसीडेंसी के बारे में यही कहा कि ऐसा लगता है कि वहां हर गांव में एक स्कूल है। सन 1820 ईस्वी के आसपास मुंबई प्रेसिडेंसी के बारे में वहां के एक वरिष्ठ अफसर जी.एल.प्रेंडरगास्ट ने कहा कि हमारे क्षेत्र में शायद ही कोई छोटा सा गांव ऐसा हो जहां एक स्कूल नहीं है। 1882 ईस्वी में डॉक्टर ने पंजाब की 1850 की स्थिति के बारे में लिखा कि अंग्रेजी आधिपत्त्य में आने से पहले पंजाब में भी लगभग हर गांव में एक स्कूल था।
मद्रास प्रेसिडेंसी में शिक्षा की स्थिति के बारे में जानकारी एकत्र करने हेतु गवर्नर थॉमस मुनरो ने एक निर्देश राजस्व कलेक्टरों को सन 1828 में प्रसारित किया, उसके आधार पर राज्य-मुख्य सचिव डी.हील ने बोर्ड ऑफ रेवेन्यू के अध्यक्ष व सदस्यों को एक पत्र लिखा। उस पर से कलेक्टरों की रिपोर्टें आई। उनमें विद्यालयों की संख्या, उनकी सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति एवं व्यवस्था की रूपरेखा, शिक्षकों एवं विद्यार्थियों की संख्या, उनकी सामाजिक स्थिति, जाति आदि तथा पढ़ाए जाने वाले विषय, पुस्तकें व अध्यापन विधि और छात्रों-अध्यापकों का योग्यता-स्तर आदि विवरण थे। गंजाम और विशाखापट्टनम के कलेक्टरों ने लिखा कि जो तथ्य वह भेज रहे हैं, वह भी अभी पूरे नही है, अधूरे ही हैं और तथ्य अभी एकत्र होने हैं। दो कलेक्टरों ने घर पर पढ़ रहे बच्चों को भी जानकारी दी। मलाबार के कलेक्टर ने वहां के 1594 विद्वानों की विस्तृत सूची भेजी जो धर्मशास्त्र, विधि गणित, ज्योतिष, तत्वज्ञान, नीतिशास्त्र एवं आयुर्वेद में अपने गुरुओं के घरों में (स्कूलों व कॉलेजों में नहीं) निजी तौर पर अध्ययनरत थे। फरवरी 1826 में मद्रास के कलेक्टर ने रिपोर्ट भेजी कि उसके क्षेत्र में 26963 विद्यार्थी अपने घरों में पढ़ रहे हैं। मद्रास के कलेक्टर की पहली रिपोर्ट में पढ़ रहे बच्चों की संख्या 5699 दी गई है।
कलेक्टरों की रिपोर्ट मिलने पर मद्रास प्रेसीडेंसी की सरकार ने 10 मार्च 1826 को उनकी समीक्षा की और गवर्नर सर थॉमस मुनरो ने निष्कर्ष टिप्पणी की कि 5 से 10 वर्ष आयु समूह के प्रेसिडेंसी के कुल लड़कों का लगभग एक चौथाई हिस्सा स्कूलों में शिक्षा पा रहा है। घर पर पढ़ रहे बच्चे इसके अतिरिक्त है। घर पर पढ़ रहे बच्चों की संख्या मिलाने पर कुल लगभग एक तिहाई के करीब छात्र पढ़ रहे हैं, ऐसा निष्कर्ष निकलता है। लड़कियों की स्कूली शिक्षा की कमी के बारे में थॉमस मुनरो ने यह स्पष्टीकरण दिया कि उनकी पढ़ाई मुख्यतः घरों में होती है। पढ़ाए जाने वाले विषयों का जो विवरण उन्होंने दिया, उसमें गणित, व्याकरण, ज्योतिष, तर्क आयुर्वेद, विधि, दर्शन और संस्कृत साहित्य के प्रायः वे ही ग्रंथ है, जो मद्रास या बंगाल में। क्षेत्रीय साहित्य की पुस्तकें, कथा-कहानी, नाटक, नीतिकथा आदि प्रत्येक क्षेत्र में प्रायः स्थानीय होती थी। इस प्रकार शिक्षा का अखिल भारतीय और स्वाभाविक क्षेत्रीय रूप साथ-साथ दिखता था।
यह विवरण स्पष्ट करते हैं कि भारत उन दिनों शिक्षा की दृष्टि से हीन नहीं था और महात्मा गांधी का सन 1931 में लंदन की एक सभा में कहा गया यह कथन पूर्णतः प्रामाणिक था कि अंग्रेजी राज्य में भारत में शिक्षितों की संख्या घटी है क्योंकि अंग्रेजों ने स्वदेशी विद्या के सुंदर वृक्ष की जड़ों को खोद कर देखा और फिर वह खुदी हुई जड़ें खुली ही रहने दी।
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