ज़िद्दी
सामने वाले चावला जी भरी दोपहरी में चाचा जी को लेकर घर पहुंचे। दोपहर के करीब 2:00 बज रहे थे, हाथ में पट्टी बंधी हुई थी और चेहरे पर तपती दोपहरी में पसीने की बूंदों की जगह क्रोध की अग्नि दीप्त थी। वज़ह कोई नयी नहीं थी, किंतु पुरानी होते हुए भी उसका कोई समाधान नहीं हो पा रहा था।
दरअसल बात यह थी कि चाचा जी के दोनों बेटे विदेश में सेटल हो गए थे। जब तक चाची जी थी, तब तक दोनों मियां-बिबी मज़े से अपने आलीशान बंगले में रहते थे। उनके ठीक सामने हमारा भी मकान था। चाची जी के जाने के बाद परिस्थितिवश चाचा जी को अपना घर द्वार बेचकर बच्चों के पास विदेश जाना पड़ा। अब नई जगह, नया परिवेश, नए-नए लोग, उन्हें कुछ भी रास नहीं आ रहा था।
इसलिए थोड़े दिन गुजरे नहीं की चाचा जी वापस अपने देश जाने की ज़िद करते। अब बच्चों का बार-बार उनको भारत लेकर आना बड़ा मुश्किल काम था और उनके साथ रुकना तो लगभग असंभव सा था। अंततः इसका हल यह निकाला गया की कुछ करीबी रिश्तेदारों से बात कर थोड़े दिनों के मन बहलाव के लिए उन्हें भारत भेज दिया जाता। किंतु चाचा जी को तो यहां आते ही जैसे पंख लग जाते। इधर-उधर अकेले ही घूमने चले जाते तथा अपनी आधी से अधिक उम्र उन्होंने जिस घर में गुजारी थी, जो अब बेच दिया गया था, वहां तो वह लगभग रोज ही जाते और पूरे अधिकार पूर्वक जाते थे। कई बार तो उस घर से बाहर आने को भी तैयार नहीं होते थे। कभी घर के ही बाहर घंटों बैठे रहते तो कभी जबरदस्ती बाहर निकालने पर दहाड़े मार मार कर रोने लगते थे। उनकी इन हरकतों से हमें तो शर्मिंदगी होती ही थी सामनेवाले को भी परेशानी होती थी। जब इस तरह की हरकतें ज्यादा बढ़ जाती तो मजबूरन उन्हें वापस बच्चों के पास विदेश भेजने का बंदोबस्त करना पड़ता। अपनी गलतियों पर शर्मिंदा हो, थोड़े दिन तो वहां पर ठीक-ठाक रहते, मगर कुछ दिनों बाद फिर वही इंडिया जाने की ज़िद, गलतियां न करने कि कसमें और न जाने क्या-क्या। ढाक के तीन पात, वापसी के बाद फ़िर वही हरकतें। इस बार तो पूरे 2 साल बाद आए थे, सोचा था सुधर गए होंगे लेकिन नहीं। इस बार उन्होंने खिड़की के ऊपर जोर-जोर से हाथ मारकर कांच तो तोड़ा ही अपना हाथ भी जख्मी कर बैठे थे। अब क्या हो इस समस्या का समाधान, किसी की कुछ समझ में नहीं आ रहा था।
- डॉ. मोहिनी नेवासकर
2 comments:
Very Nice
बहुत खूब...👌👌
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