उस्ताद अमीर खाँ
मध्य प्रदेश की मालवभूमि ने देश को कई कलाकार दिए हैं, उन्हीं में से संगीत के क्षेत्र में उल्लेखनीय नाम उस्ताद अमिर खाँ साहब का है। इनकी स्मृति में संस्कृति विभाग के अंतर्गत उस्ताद अलाउद्दीन खाँ संगीत अकादमी द्वारा प्रतिवर्ष संगीत समारोह का आयोजन किया जाता है। ऐसे अभी तक कितने ही समारोह आयोजित किए जा चुके हैं, जिसमें देश के शास्त्रीय तथा उप-शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त अनेक गायक तथा वादक शिरकत कर चुके हैं।
अमिर खाँ साहब का जन्म 1912 में इंदौर के प्रसिद्ध सारंगी वादक ज़नाब शाहमीर खाँ साहब के परिवार में हुआ था। शाहमीर खाँ साहब उस समय के चर्चित भिंडी बाजार घराने से त'आल्लुक़ रखते थे, जहां से इन्हें सारंगी वादन की बहुत ही अच्छी तालीम मिली हुई थी। शाहमीर खाँ साहब के संगीत के क्षेत्र में होने की वज़ह से संगीत की दुनिया के बड़े-बड़े दिग्गज़ कलाकारों का परिवार में आना जाना लगा रहता था। फलस्वरूप, अमिर खाँ साहब को संगीत का वातावरण तो विरासत में ही प्राप्त हुआ था।
प्रारंभ में, उनके पिता चूंकी स्वयं एक अच्छे सारंगी वादक थे, अतः वह अपने पुत्र को भी इसी क्षेत्र में लाना चाहते थे। हालाँकि जब घर में ही कई छोटे-बड़े आयोजनों पर संगीत की महफिलों का दौर चलता रहता था तब इस नन्हें बालक अमिर खाँ को, बीनकार उस्ताद मुराह्द खाँ साहब, ध्रुपद गायक उस्ताद नासिरूद्दीन खाँ साहब, रज्जबअली खाँ साहब आदि बड़े-बड़े संगीतज्ञों को सुनने एवं समझने का अवसर प्राप्त हुआ था। अमिर खाँ साहब ने इन सब की विशेषताओं को समझते हुए गायकी के क्षेत्र में अपनी रुचि प्रदर्शित की। उन्होंने भिंडी बाजार घराने के ही उस्ताद छज्जू खाँ साहब से मेरुखण्ड के हिसाब को समझकर अपनी गायकी में डाला तथा बुद्धिमत्ता पूर्वक सरगम के रूप में प्रस्तुत किया। इस सरगम में राग सौंदर्य तो था ही, साथ ही साथ उस सौंदर्य को द्विगुणित करने वाली कठिनता तथा बारीकी भी उसमें विद्यमान थी। फ़लस्वरूप एक नई तथा स्वतंत्र गायन शैली का आविष्कार हुआ, जिसे इंदौर घराना के नाम से जाना जाने लगा। इसके संस्थापक होने का संपूर्ण श्रेय अमिर खाँ साहब को मिला।
अमिर खाँ साहब की एक ख़ासियत यह भी रही कि गायन के क्षेत्र में अपना वर्चस्व स्थापित करने के पश्चात भी उन्होंने सितार एवं तबले का भी अच्छा ज्ञान प्राप्त किया था। वह मूल रूप से इंदौर के थे तथा उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र भी इंदौर को ही बनाए रखा। फिर भी उनके अनुयायियों में या कहें शागिर्दी रिवायत में राजस्थान तथा कोलकाता के शागिर्द अधिक थे। उन्होंने जहां कर्नाटक शैली के रागों को हिंदुस्तानी संगीत में ढाला, वहीं हिंदुस्तानी रागों के रूप को भी नया आयाम दिया। फलस्वरूप रूढ़ियों के पुराने दायरे को तोड़कर जब अमिर खाँ साहब ने सृजनशीलता की नई मिसाल कायम की तब वे हजारों युवा कलाकारों के आदर्श बन गए।
लीक से हटकर कुछ करने की चाहत अमिर खाँ साहब को फिल्मी दुनिया की तरफ़ खींच लायी। फिल्मों के माध्यम से उन्होंने न केवल शास्त्रीय संगीत को बखूबी परिचित करवाया, अपितु लोकप्रियता की नई बुलंदियों पर लाकर खड़ा कर दिया। 'शबाब', 'गूंज उठी शहनाई' तथा 'बैजू बावरा' इन फिल्मों के माध्यम से उनकी संगीत की गहराई को समझा जा सकता है। अपनी कंठ मर्यादा को पहचानते हुए उन्होंने स्वयं के लिए भी एक विशिष्ट गायकी का निर्माण किया जो इंदौर शैली के नाम से मशहूर हुई। उस्ताद अमीर ख़ाँ साहब ने "अतिविलंबित लय" में एक प्रकार की "बढ़त" लाकर सबको चकित कर दिया था। इस बढ़त में आगे चलकर सरगम, तानें, बोल-तानें, जिनमें मेरुखण्डी अंग भी है और आख़िर में मध्यलय या द्रुतलय, छोटा ख़याल या रुबाएदार तराना पेश किया।
सन 1977 में संगीत जगत की इस महान हस्ती का दैदीप्तमान् तेज लुप्त हो गया। आज भी अगर भारतीय संगीत के क्षेत्र में इंदौर की देन लता मंगेशकर के बाद दूसरा नाम अगर लिया जाए तो निसंदेह रूप से अमिर खाँ साहब का नाम ही सामने आता है, जिनकी श्रेष्ठता को स्वयं लता मंगेशकर ने भी स्वीकार किया हुआ है। यहाँ इस बात का ज़िक्र करना लाज़मी होगा की कई नवोदित या कहें उभरते कलाकार आकाशवाणी पर प्रसारित होने वाले उनके कार्यक्रमों को सुनकर ही रियाज़ किया करते थे।
- डॉ. मोहिनी नेवासकर
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